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!!आस में बैठा हूं!!

जागतिक साहित्य कला व्यक्तित्व विकास मंच सदस्य लेखक कवी अनिकेत सागरजी की कविता जब राधारानी जी कान्हा जी से रूठ जाती है तब कान्हा जी कैसे मनाते है यह भाव प्रस्तुत करती है।

तुमसे मिलन की आस में बैठा हूं
राधे प्रेम की प्यास में बैठा हूं
कब आओगी पूछता है बावरा
मैं प्रीत के आभास में बैठा हूं।।

मुरलीधर मैं मुरली मधुर बजा दूं
स्वरों से तेरे मन को भी सजा दूं
फिर से बरसाऊंगा प्रेम की धारा
एक तुम हो राधे जीने का सहारा
तुम बिन जैसे वनवास में बैठा हूं
तुमसे मिलन की आस में बैठा हूं।।

न जानें तुम्हें कहां कहां ढूंढ़ता हूं
ब्रज की हर गली गली घूमता हूं
क्यों अपने कृष्ण पर रूठती हो
आंसूओं से सरोवर भर देती हो
लागे प्रीत के अभ्यास में बैठा हूं
तुमसे मिलन की आस में बैठा हूं।।

राधे तुम अब मान भी जाओ
इतना कान्हा को न तरसाओ
मुरली भी कितनी मैं बजाऊं
प्रीत के गीत भी कितने गाऊं
तुम बिन अकेले रास में बैठा हूं
तुमसे मिलन की आस में बैठा हूं।।

©®अनिकेत सागर

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