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त्रिसुपर्ण मंत्र

*जागतिक साहित्य कला व्यक्तित्व विकास मंच के सन्माननीय सदस्य कवी लेखक भूपाल त्र्यंबक देशमुख लिखित त्रिसुपर्ण मंत्रों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी*

 

🌷 समस्त भारतवर्ष के सभी वेदविदों को मेरा सविनय , सादर साष्टांग दण्डवत । आज हम त्रिसुपर्ण मंत्रों का विचार करेंगे । 🙏

 

🌷 *त्रिसुपर्ण मंत्र — १* 🌷

 

‌ॐ ब्रम्हमेतु माम् । मधुमेतु माम् । ब्रम्हमेव मधुमेतु माम् । यास्ते सोम प्रजावत्सोभिसो अहम् । दुष्वप्नहं दुरुष्षह । यास्ते सोमप्राणा ँ, स्तांजुहोमि । त्रिसुपर्णमयाचितं । ब्राह्मणाय दद्यात् । ब्रम्हहत्या वाSएते घ्नन्ति । ये ब्राम्हणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति । आसहस्त्रात्पंक्तिं पुनन्ति ॥१॥

 

==> ॐ ब्रम्ह मुझे प्राप्त होना चाहिये । मधु ( मीठा रस ) मुझे प्राप्त होना चाहिये । ब्रह्म यही मधु है । वो मुझे प्राप्त होना चाहिये । हे सोम , मै आपका अभिवत्स हूँ । दुष्ट स्वप्नों का नाश करनेवाले ! दुःख का निरसन कर , हरण कर । हे सोम , आप से मिले हुए सब प्राणों की मै आहुती देता हूँ ।

यह त्रिसुपर्ण बिना मांगे ब्राह्मण को दो । यह मंत्र ब्रह्महत्या निवारण करता है । ( ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करता है । ) जो ब्राह्मण ( विद्याव्यासंगी ) त्रिसुपर्ण का पाठ करते है , उन्हे सोम की प्राप्ती होती है और वो हजारों के जमाव को या जथ्थे को पावन करते है ।।१।।

 

🌷 *त्रिसुपर्ण मंत्र — २* 🌷

 

ॐ ब्रह्ममेधया मधुमेधया । ब्रह्ममेव मधुमेधया । अद्यानो देव सवित: प्रजावत्सावी: सौभगम् । परा दु:ष्वप्निय ँ, सुव । विश्वानि देव सवितुर्दुरिता परासुव । यद्भद्रं तन्म आसुव । मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव: । माध्वीर्न: सन्त्वोखधी: । मधुनक्तमुतोषसि मधुमत्पार्थिव ँ, रज: । मधुद्यौरस्तु न: पिता । मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमा ँ; अस्तु सूर्य: । माध्वीर्गावो भवन्तु न: । य इमं त्रिसुपर्णमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात् । भ्रृणहत्यां वा एते घ्नन्ति । ये ब्राह्मणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति । आसहस्त्रात्पंक्तिं पुनन्ति । ॥२॥

==> ॐ ब्रह्म की धारणा से , मधू की धारणा से , ब्रह्मरुप मधू की व्यासंग से , मुझे ब्रह्म प्राप्त होना चाहिये । हे सवितृ देव , प्रजा के संदर्भ मे वात्सल्य दर्शानेवाले गुरु हमे प्राप्त होने चाहिये । हमे दु:स्वप्नों से मुक्त करो । हे सवितृ देव , सभी पाप दूर करो और जो मंगल है वह हमें दो ।

परब्रह्म प्राप्ती की इच्छा करनेवाला जो मैं । मेरे लिये मधुर मधुर पवन बहता रहे । नदियाँ मीठे मीठे पानी के साथ बहती रहे । सभी औषधीयाँ हमें मीठी लगे । रात्र—दिन हमारे लिये मीठी बने । वसुंधरा की धूल भी हमें मीठी लगे । दिव् लोक ( देवलोक ) मीठा हो जाये , वह पितासमान हमें लगे । वनस्पति मीठी हो जाये । सूरज मीठा हो जाये । गौंए मीठी हो जाये । जो भी यह त्रिसुपर्ण बिना मांगे ब्राह्मण को देता है , उसका भृणहत्या से ( उतावलापन से होनेवाली पातके ) छुटकारा होता है । जो ब्राह्मण ( विद्या— वेद , दर्शन ,स्मृतिओं का सृष्टि कल्याणेच्छा से अभ्यास करनेवाले ) त्रिसुपर्ण का पठण करते है , उनको सोम प्राप्त होता है और वो हजारों के जमाव को या जथ्थे को पावन करते है ॥२॥

 

🌷 *त्रिसुपर्ण मंत्र— ३* 🌷

 

ॐ ब्रह्म मेधवा । मधु मेधवा । ब्रह्ममेव मधुमेधवा । ब्रह्मा देवानां पदवी: कवीनामृषीर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् । श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनाना ँ; सोम: पवित्रमित्येति रेभन् । ह ँ;स: शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् । नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् । ऋचे त्वा रुचे त्वा समित्स्रवन्ति सरितो न धेना: । अन्तर्हृदा मनसा पूयमाना: । घृतस्य धारा अभिचाकशीमि । हिरण्ययो वेतसो मध्य आसाम् । तस्मिन्त्सुपर्णो मधुकृत्कुलायी भजन्नास्ते मधु देवताभ्य: । तस्यासते हरय: सप्त तीरे स्वधां दुहाना अमृतस्य धाराम् । य इदं त्रिसुपर्णमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात् । वीरहत्यां वा एते घ्नन्ति । ये ब्राह्मणास्त्रिसुपर्णं पठन्ति । ते सोमं प्राप्नुवन्ति । आसहस्रात्पंक्तिं पुनन्ति ॥ॐ॥३॥

 

==> ॐ ब्रह्म यज्ञरुपी है , मधु यज्ञरुपी है , ब्रह्म मधुर यज्ञरुप है । देवों की पदवी ब्रह्म है । कवीओं की ( द्रष्टा की ) पदवी ब्रह्म है । ब्राह्मणों में ऋषी , मृगों में भैंसा , पक्षियों में गौरेया ( बाशा या चिडी बाज ) , वनों में परशु , यज्ञों में सोम ब्रह्म है । ब्रह्म सभी पवित्र वस्तुओं में श्रेष्ठ है । निर्मल तेजोमय मंडल में रहनेवाला सूरज ; अन्तरिक्ष को व्याप्त करके रहनेवाला वायु ; वेदी के पास रहनेवाला होता ; परदेशस्थ अतिथि ; मानव देह में उत्तम वास्तव्य करनेवाला जीव ; पवित्र स्थान में रहनेवाला ; ऋतुओं में रहनेवाला ; आकाश में रहनेवाला ; पानी मे रहनेवाले ; गौओं से उत्पन्न ; सत्य से निर्माण हुए ; पर्वतों से निर्माण हुए यह सभी ब्रह्म ही है । हे ऋचे , यह समिधा तुम्हें अर्पण हो । मन से अर्पण की हुई एवं पवित्र हुई घृत की धारा नदियों जैसी बह रही है , वह देवताओं को अर्पण हो । तेजस्वी , द्रव्यसंपन्न , मधु देनेवाला , बुद्धि की घोंसला में बैठा हुआ परमेश्वर सभी देवताओं को मधु बांट रहा है । उसके तीरपर बैठी हुई सातो इंद्रियां ब्रह्मस्वरुप होकर अमृत की धारा निकाल रही है ।

जो यह त्रिसुपर्ण बिन मांगे ब्राह्मण को देता है , वह वीरहत्या की ( मत्सर की ) पाप से मुक्त होता है । जो ब्राह्मण त्रिसुपर्ण का पठण करते है , उनको सोम की प्राप्ती होती है , वह हजारों के समुदाय को पावन करते है ॥३॥

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©संकलन व लेखनधर्म——

कविवर्य वैद्यराज भूपाल त्र्यंबक देशमुख

पिंपळनेर(धुळे)४२४३०६

🌷९८२३२१९५५०

८८८८२५२२११

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