जागतिक मराठी साहित्य और व्यक्तित्व विकास मंच सदस्य तथा ज्येष्ठ लेखक गझलाकार, कवी श्री अरविंदजी ढवळीकरजी की ओशो के विचारोंपर आधारित काव्यरचना
जीवन कां आरंभ नहीं हैं जन्म जिसे हम कहते हैं
मृत्यू को भी ना समझे फिर अंत उसे हम कहते हैं
जीवनके भीतर हैं सब जो पूर्व भी हैं पश्चात भी हैं
सूरज चांद खडे हैं जहाँ दिन रात कहां निकलते हैं
जब भी देखू इधर उधर साधू हैं बहुत साधना नहीं
पौधोंकी शोभा हैं बहुत कागजके फूलही सजते हैं
धर्म असम्भव साधना बिना अधर्म भीतर राहता हैं
योग बिना जडहीन वृक्ष ये फूल फल कहां लगते हैं
अभिनय जैसा जीवन हैं संघर्ष करे कुछ भी न मिले
रहे वासना कीं ज्वालामे और दुख तृष्णा कां सहते हैं
भोग दमन दोनोसे जागो निष्पक्ष तुम्हे अब रहना हैं
इस आँधीसे जब मुक्त चेतना द्वार सत्यके खुलते हैं
अरविंद