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दो लफ्ज़

*जागतिक साहित्य कला व्यक्तित्व विकास मंच के सन्मा. सदस्य तथा लालित्य नक्षत्रवेल समूह प्रशासक लेखक कवी दीपक पटेकर (दीपी) की बेहतरीन हिंदी कविता*

*दो लफ्ज़*

तेरी हर बात पे मर मिटता था..
तू हंसती तो हंस देता था।
तेरी आँखें नम हो जाती..
न जाने क्यों मैं रो पडता था।

तूंही मेरा ख़्वाब थी…
ख्वाबों में मिली सौगात थी।
दो पल अगर पलकें मिटता…
तूंही मेरा दिन, तूंही रात थी।

पलकों पे बिठा के रखा था तुझे..
सपनें में भी कभी खुद से ना दूर पाया।
वह कौन सी घड़ी थी न जाने तुझे
दिल में रहके भी ना करीब आजमाया।

दुख तेरे दूर जाने का किसको हैं जालिम..
मुझे तो हैरानी तेरे खुदगरजी की हैं।
दुख सिर्फ तेरे उन दो लफ्जों का हैं…
जिसने मुझे हमराही से मतलबी ठहराया हैं।

आज भी चुभते हैं दिल में वो दो लफ्ज़
गूंजते हैं मेरे कानों में बादल की तरह।
और बरसते हैं आँसू गालोंपर…
तेरे प्यार का सिला बनकर…
बारिशों की बूंदों की तरह।

तू तोड़ती गयी, मैं संभालता गया..
हर बंधन अपनें प्यार का जोड़ता गया।
तू भूलती गयी, में याद दिलाता रहा..
दिल चीरकर तेरे वो दो लफ्ज़…
किसी दर्द की तरह छिपाता गया।

©दीपक पटेकर (दीपी)
सावंतवाडी
८४४६७४३१९६

*संवाद मिडिया*

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